प्राप्त ईश्वर की प्राप्ति
प्राप्त ईश्वर की प्राप्ति ईश्वर की प्राप्ति दरअसल कोई बाहरी प्राप्ति नहीं है, क्योंकि जैसा आपने कहा — ईश्वर प्राप्त ही है। इसका अर्थ है कि हमें बाहर कहीं ईश्वर को खोजना नहीं है, बल्कि अपने भीतर अनुभव करना है। 👉 इसे समझने के लिए कुछ बिंदु देखिए: 1. अज्ञान का हटना ही प्राप्ति है जैसे सूर्य हमेशा आकाश में है, पर बादल ढक देते हैं। सूर्य को लाना नहीं पड़ता, केवल बादल हटाने होते हैं। उसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति का अर्थ है अज्ञान, अहंकार, और माया के बादलों को हटाना। 2. मन की शांति में ईश्वर का अनुभव जब मन इच्छाओं, भय और द्वेष से शांत हो जाता है, तब अंतर की शुद्ध आभा प्रकट होती है। यह आभा ही ईश्वर-प्राप्ति कहलाती है। 3. कर्म से नहीं, भाव से अनुभव बाहरी कर्म (पूजा-पाठ, तीर्थ, अनुष्ठान) साधन हैं, परंतु प्राप्ति भीतर के समर्पण, प्रेम और आत्मबोध से होती है। जितना गहरा भाव “मैं ही वह हूँ” (अहं ब्रह्मास्मि) बैठता है, उतना ईश्वर का भाव स्पष्ट अनुभव होता है। 4. स्वयं को जानना ही ईश्वर को पाना है। उपनिषद कहते हैं: “तत्वमसि” – तू वही है। जब हम “कर्तापन” और “अलगाव” को छोड़कर आत्मा को ...