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आत्मनिष्ठ बने

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आत्मनिष्ठ होना क्या होता है? आत्मनिष्ठ होने का अर्थ है अपने स्वयं के अनुभव, विचार, और सत्य की खोज में केंद्रित रहना। इसका तात्पर्य बाहरी प्रभावों, समाज की मान्यताओं या अन्य लोगों की अपेक्षाओं से प्रभावित हुए बिना अपनी स्वयं की आंतरिक अनुभूति और समझ के आधार पर जीवन जीना है। यह आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ने का एक चरण भी हो सकता है, जहाँ व्यक्ति बाहरी सत्य के बजाय अपने भीतर के सत्य को पहचानने और अनुभव करने का प्रयास करता है। आत्मनिष्ठ व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं और क्रियाओं के प्रति सजग होता है और उन्हें बाहरी मानकों से नहीं, बल्कि अपनी आंतरिक बुद्धि, आत्म-निरीक्षण और अनुभव के आधार पर परखता है। ध्यान और आत्म-निरीक्षण की साधना आत्मनिष्ठ बनने में सहायक होती है, क्योंकि इससे व्यक्ति अपने मन, विचारों और वास्तविक स्वरूप को अधिक गहराई से समझ सकता है। आत्मनिष्ठ कैसे बनें? आत्मनिष्ठ होने के लिए व्यक्ति को अपने भीतर की गहराइयों में उतरना होता है और बाहरी प्रभावों से स्वतंत्र होकर स्वयं को पहचानना होता है। यह एक सतत अभ्यास है जिसमें ध्यान, आत्म-निरीक्षण और आंतरिक सजगता की आवश्यकता होती ...

सब कुछ आनंद है

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गहरी स्वांस के लाभ

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*गहरी स्वांस के लाभ*  शांति से गहरी स्वांस या एब्डॉमिनल ब्रीदिंग (Abdominal Breathing), जिसे डायफ्रामेटिक ब्रीदिंग भी कहा जाता है, दिन में चार बार (सुबह, दोपहर, शाम और रात) 10-10 बार करने से कई शारीरिक और मानसिक लाभ होते हैं। *शारीरिक लाभ:* 1. *रक्तचाप को नियंत्रित करता* *है* – यह हाई ब्लड प्रेशर को कम करने में सहायक होता है। *2. प्रोस्टेट और पाचन स्वास्थ्य में सुधार* – पेट और आंतों की मांसपेशियों को आराम देकर पाचन को मजबूत करता है। 3. *श्वसन तंत्र को मजबूत करता है* – फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है और ऑक्सीजन आपूर्ति बेहतर होती है। 4. *हृदय स्वास्थ्य में सुधार* – यह हृदय की धड़कन को संतुलित करता है और हृदय रोगों का खतरा कम करता है। 5. *प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता* है?– यह शरीर की इम्यूनिटी को मजबूत करता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। *मानसिक और आध्यात्मिक लाभ:* 1. *तनाव और चिंता को कम करता* है – यह कोर्टिसोल (तनाव हार्मोन) के स्तर को कम करता है। 2. *ध्यान और आत्म-निरीक्षण में सहायक* – मन को शांत कर स्वानुभूति को गहरा करता है। *3. माइंडफुलनेस को बढ़ाता है* – सजगता से वर्त...

सोशल मीडिया और सिनेमा

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मीडिया और सिनेमा के समाज पर नकारात्मक प्रभाव: एक विवेचनात्मक अध्ययन मीडिया और सिनेमा समाज को जागरूक करने, मनोरंजन देने और विचारों को प्रसारित करने का एक सशक्त माध्यम हैं। लेकिन आधुनिक युग में इनका प्रभाव केवल सकारात्मक नहीं रहा, बल्कि कई नकारात्मक प्रभाव भी समाज पर पड़ रहे हैं। इस लेख में हम मीडिया और सिनेमा के समाज पर पड़ने वाले इन नकारात्मक प्रभावों का गहराई से विश्लेषण करेंगे। --- 1. नैतिक और सांस्कृतिक गिरावट मीडिया और सिनेमा में बढ़ती अश्लीलता, हिंसा और अनैतिकता समाज की नैतिकता को प्रभावित कर रही है। फिल्मों और वेब सीरीज में बढ़ते आपत्तिजनक दृश्य और संवाद युवा पीढ़ी के मानसिक विकास को बाधित कर सकते हैं। पारिवारिक मूल्यों की उपेक्षा और पश्चिमी संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव भारतीय समाज की पारंपरिक सोच पर नकारात्मक असर डाल रहा है। --- 2. हिंसा और अपराध को बढ़ावा सिनेमा और टेलीविजन में हिंसक दृश्यों की अधिकता दर्शकों, खासकर युवाओं, पर गहरा प्रभाव डालती है। कई अध्ययन बताते हैं कि जब लोग लगातार हिंसा से भरी सामग्री देखते हैं, तो उनके भीतर आक्रामक प्रवृत्तियाँ विकसित हो सकती हैं...

मैं की समझ

*सभी मनुष्य स्वयं को मैं कहते हैं और यह मैं किसको कहते हैं इससे अनभिज्ञ है।इस मैं को कैसे अनुभव करें?* "मैं" का अनुभव करना आत्म-अवलोकन और गहन आत्मचिंतन का विषय है।  आमतौर पर, जब हम "मैं" कहते हैं, तो हमारा ध्यान शरीर, मन, विचारों, या भावनाओं पर होता है। लेकिन क्या ये वास्तव में "मैं" हैं, या ये केवल "मैं" के बाहरी स्तर हैं? "मैं" को अनुभव करने की सत्य समझ (नासमझी): 1. विचारों से परे ही सत्य है  हम स्वयं को अपने विचारों, पहचान, और भूमिकाओं से जोड़ते हैं। लेकिन यदि हम इन सबसे परे जाकर देखें, तो यह समझ मिलती है कि"मैं"  है—शुद्ध चेतना। इसके लिए समझ ध्यान (मेडिटेशन) आवश्यक है। विचारों का साक्षी बनने का अभ्यास करें, उन्हें स्वयं से अलग देखें। 2. स्वयं से पूछना – "मैं कौन हूँ?" यह प्रश्न (Who am I?) आत्म-अवलोकन का सबसे सरल और प्रभावी तरीका है। जब हम इस प्रश्न को गहराई से पूछते हैं, तो शरीर, मन, और पहचान की परतें हटती जाती हैं, और हम शुद्ध "मैं" की अनुभूति कर सकते हैं। 3. अभी और यहीं पर (वर्तमान) ध्यान केंद्रित कर...

प्राण और पंचतत्व

🌿 प्राण और पंचमहाभूत 🌿 मानव शरीर के प्रमुख तत्व प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति के पंचमहाभूतों से जुड़े हुए हैं। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु इन्हीं पाँच तत्वों के विभिन्न अनुपातों से बनी होती है। इसी प्रकार, मानव शरीर भी इन तत्वों से निर्मित होता है: 🌊 जल (Water) – 72% 🌍 पृथ्वी (Earth) – 12% 💨 वायु (Air) – 6% 🔥 अग्नि (Fire) – 4% 🌌 आकाश (Ether/Space) – परिवर्तनीय (इसे बढ़ाया जा सकता है) 🔹 प्रत्येक तत्व की भूमिका शरीर में: 🔸 पृथ्वी 🌍 – हड्डियाँ, मांसपेशियाँ, दाँत, नाखून, त्वचा और केश जैसी ठोस संरचनाएँ बनाता है। संरचना और शक्ति प्रदान करता है। 🔸 जल 💧 – लार, रक्त, मूत्र, वीर्य और पसीने में उपस्थित रहता है। शरीर में द्रव संतुलन बनाए रखता है । 🔸 अग्नि 🔥 – भूख, प्यास, निद्रा, दृष्टि और त्वचा के रंग को नियंत्रित करता है। चयापचय (Metabolism) को संतुलित करता है । 🔸 वायु 💨 – गति, विस्तार, संकुचन, कंपन और दमन को नियंत्रित करता है। शरीर में गति और लचीलेपन को सक्षम बनाता है । 🔸 आकाश (Ether/Space) 🌌 – शरीर के रिक्त स्थानों, ध्वनि तरंगों और ब्रह्मांडीय ऊर्जा में उपस्थ...

ज्ञान और ज्ञानयुक्त कर्म *आध्यात्मिक ज्ञान, आत्म-साक्षात्कार और भक्ति* इसे विषय को विस्तार से समझने के लिए इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:1. स्वरूप की असली पहचान सत्य समझ से होती हैइसका अर्थ यह है कि जब तक हम अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) को सत्य की गहरी समझ से नहीं जान पाते, तब तक हमारा ज्ञान अधूरा रहता है। केवल बाहरी ज्ञान या शास्त्रों का अध्ययन करने से आत्म-साक्षात्कार नहीं होता। वास्तविक ज्ञान वही है, जो आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझने में मदद करे।2. सिर्फ बुद्धि से जानकर ज्ञानी बन जाना पर्याप्त नहींकई बार लोग पुस्तकों, शास्त्रों और तर्क-वितर्क के आधार पर खुद को ज्ञानी समझने लगते हैं, लेकिन यदि वे सत्य (परम सत्य, ब्रह्मज्ञान) की वास्तविक अनुभूति नहीं कर पाते, तो उनका ज्ञान अधूरा रहता है। ऐसा ज्ञान, जो केवल तर्क और बुद्धि तक सीमित हो, लेकिन उसमें आध्यात्मिक अनुभूति (सत्य की अनुभूति) न हो, वह व्यर्थ हो जाता है। ऐसे में कर्मकांड (पूजा-पाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि) भी सिर्फ एक बाहरी प्रक्रिया रह जाती है, जिसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ता।3. मौन और भक्ति युक्त कर्म से शांति की प्राप्तिजब व्यक्ति भीतर की शांति को पाने के लिए मौन (ध्यान, साधना, आत्मचिंतन) में उतरता है और सच्चे भाव से कर्म करता है, तो उसका मन शांत और स्थिर हो जाता है। यह भक्ति-युक्त कर्म ही असली साधना होती है, जिससे आंतरिक आनंद और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होती है।सारांश:केवल बुद्धि से ज्ञानी बनने से आत्म-साक्षात्कार नहीं होता।यदि सत्य की अनुभूति नहीं हुई, तो कर्मकांड व्यर्थ है।मौन और भक्ति-युक्त कर्म से मन में वास्तविक शांति आती है।यह विचार हमें यह सीख देता है कि केवल बाहरी ज्ञान और कर्मकांडों से अधिक महत्वपूर्ण है आत्म-अनुभूति, भक्ति और सत्य की गहरी समझ। सत्य महेश भोपाल