आत्मज्ञान हेतु वेदों के चार महावाक्य
*आत्मज्ञान हेतु वेदो में चार महावाक्य हैं।* जैसेः
*नेति नेति*
(यह भी नही, यह भी नहीं)
*अहं ब्रह्मास्मि*
(मैं ब्रह्म हूँ)
*अयम् आत्मा ब्रह्म*
(यह आत्मा ब्रह्म है)
*यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे*
(जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है)
वेद की पूर्ण व्याख्या इन महावाक्यों से होती है।
वेद,उपनिषद उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण की मान्यता से परे चेतन दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से जागृत मनुष्य रूप में ब्रह्म जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह आत्मस्वरूप परमात्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ ज्ञान है।
इस परम भावबोध का उद्घोष करने के लिए उपनिषद के चार महामंत्र हैं।
*तत्वमसि*
(तुम वही हो),
*अहं ब्रह्मास्मि*
(मैं ब्रह्म हूं),
*प्रज्ञानं ब्रह्मा*
(प्रज्ञा ही ब्रह्म है),
*सर्वम खिलविद्म ब्रह्मा*
(सर्वत्र ब्रह्म ही है)।
उपनिषद के ये चार महावाक्य मानव के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें जान व मान कर जीव तदरूप हो आनंदपूर्ण हो सकता है।
*संकलक*
*सत्यमहेश, भोपाल।*
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