चेतना ऊर्जा पूर्णता
ऊर्जा और चेतना-पूर्णता ईशावास्योपनिषद में कहा गया है कि सच्चिदानंद परब्रह्म हर प्रकार से पूर्ण है। सब कुछ पूर्ण ब्रह्म है।यह जगत परब्रहा से परिपूर्ण है एवं उसी से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है। परब्रह्म से परिपूर्ण होने के कारण यह संसार स्वयं में पूर्ण है और पूर्ण में से पूर्ण निकाल लेने पर परपूर्ण पूर्ण ही शेष रहता है। अतः हम सब ईश्वर की पूर्ण संतानें हैं। ईश्वर ही हैं।अपूर्णता या अधूरेपन की अनुभूति एक मान्यता है, जोकि मन का अज्ञान है।जब तक शिशु मां के गर्भ में रहता है तब तक उसे कोई कष्ट नहीं रहता। ऐसी स्थिति में वह स्वयं को पूर्ण ही होता है।जैसे ही मनुष्य जन्म लेता हैं, वैसे ही अज्ञानवश उसे अपनी अपूर्णताओं का आभास होने लगता है। उसे भूख लगती है तो वह रोता है, उसे मां से तनिक भी दूर रहना पड़े तो वह रोता है। यहां से अपूर्णताओं का जो अज्ञानता का सिलसिला आरंभ होता है, वह जीवनभर चलता रहता है। पूर्ण ईश्वर होते हुए भी स्वयं को अपूर्ण समझ कर पूर्णता को ढूंढना एक अपराध है। समस्त अपूर्णताएं व्यक्ति की अपनी मानसिक स्थिति की देन होती हैं जैसे स्वयं को धन, बल, पद और शरीर आदि में अन्य किसी ...