चेतना ऊर्जा पूर्णता
ऊर्जा और चेतना-पूर्णता
ईशावास्योपनिषद में कहा गया है कि सच्चिदानंद परब्रह्म हर प्रकार से पूर्ण है। सब कुछ पूर्ण ब्रह्म है।यह जगत परब्रहा से परिपूर्ण है एवं उसी से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है। परब्रह्म से परिपूर्ण होने के कारण यह संसार स्वयं में पूर्ण है और पूर्ण में से पूर्ण निकाल लेने पर परपूर्ण पूर्ण ही शेष रहता है। अतः हम सब ईश्वर की पूर्ण संतानें हैं। ईश्वर ही हैं।अपूर्णता या अधूरेपन की अनुभूति एक मान्यता है, जोकि मन का अज्ञान है।जब तक शिशु मां के गर्भ में रहता है तब तक उसे कोई कष्ट नहीं रहता। ऐसी स्थिति में वह स्वयं को पूर्ण ही होता है।जैसे ही मनुष्य जन्म लेता हैं, वैसे ही अज्ञानवश उसे अपनी अपूर्णताओं का आभास होने लगता है। उसे भूख लगती है तो वह रोता है, उसे मां से तनिक भी दूर रहना पड़े तो वह रोता है। यहां से अपूर्णताओं का जो अज्ञानता का सिलसिला आरंभ होता है, वह जीवनभर चलता रहता है।
पूर्ण ईश्वर होते हुए भी स्वयं को अपूर्ण समझ कर पूर्णता को ढूंढना एक अपराध है। समस्त अपूर्णताएं व्यक्ति की अपनी मानसिक स्थिति की देन होती हैं जैसे स्वयं को धन, बल, पद और शरीर आदि में अन्य किसी से हीन समझना। आपके भीतर कथित अपूर्णताओं को गिनाने में संसार भी पीछे नहीं रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हम दूसरों के मापदंडों पर खरे नहीं उतरते और वे हमारी त्रुटियां गिनाने में पीछे नहीं रहते। क्या आपका रिमोट कंट्रोल आपने अपने आप को पूर्ण बनाने के लिए किसी दुसरे अपूर्ण को दिया हुआ है?
माता- पिता, गुरु और सच्चा मित्र यदि किसी कमी की ओर इंगित कर रहा है तो उनका उद्देश्य हमें सत्यसमझ देना होना चाहिये।परंतु इनसे इतर यदि कोई ईर्ष्यालु या अभिमानी या दमनकारी व्यक्ति हमारी कमियां गिना रहा है तो हमें सचेत रहना होगा कि कहीं हम बिना वजह हीन भावना के शिकार तो नहीं होते जा रहे हैं। स्वयं को परब्रह्म का अंश समझना अपनी • पूर्णता पर विश्वास करने का सबसे सरल तरीका है। पूर्ण से पूर्ण का जन्म हुआ तो वह किसी भी स्थिति में अपूर्ण नहीं हो सकता। जिस भी अविद्या के स्तर पर आप हैं,वह मन द्वारा निर्मित उसकी अपूर्णता की अपनी परिधियां हैं।मन की सीमाओं से परे ही आप पूर्ण अनुभव कर सकते हैं।यह सरल है क्योंकि आप पूर्ण हो और मन ने भ्रमवश आपको अपूर्णता का विश्वास दिलाया हुआ है।विचारों व मन के छलावे से मुक्ति से आप पूर्णता की सत्य अनुभूति कर सकते हैं।
मनुष्य के सिवाय पशु-पक्षी,विश्व मे अन्य किसी को भी,कभी भी स्वयं में अपूर्णता का भ्रम नहीं होता। मनुष्य को अपूर्णता का भ्रम मात्र अपूर्ण मन में होता है,बाहर कहीं भी नहीं। मानव को पूर्णता के वास्तविक मर्म के अनुभव के अनुरूप जीवन जीना चाहिए।
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