मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ? यह प्रश्न उठा,
मन का अंतरतम जागा।
नहीं शरीर,न विचार,
कभी लगता, मैं एक प्रकार।
कभी लगा, मैं धड़कन मात्र,
कभी हवा संग उड़ता पात।
कभी लगा, यह जगत भ्रम है,
कभी लगा, मैं इसमें रम हूँ।
धूप-छाँव का खेल निराला,
कभी सागर, कभी ज्वाला।
कभी शून्य, कभी विस्तार,
कभी प्रेम, कभी तकरार।
मैं रूप-अरूप से परे खड़ा,
हर प्रश्न का उत्तर बड़ा।
ना मैं यह तन, ना मैं यह मन,
ना वासनाएँ, ना ही चिंतन।
मैं शाश्वत चेतना प्रवाहित,
अद्वैत प्रेम से आलोकित।
ना आदि मेरा, ना है अंत,
बस हूँ साक्षी, चिर-अनंत।
जो इसे समझे, मुक्त वही,
जो इसमें उलझे, भ्रम वही।
मैं तो बस अनुभव मात्र हूँ,
अहंकार से परे सत्य ब्रह्म हूँ।
मैं वही हूँ।
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