सत्य स्वरूप
*मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य स्वयं के सत्य स्वरूप का बोध है।जाग्रत अवस्था में भी हम बाहरी दृश्यों में उलझे रहते हैं, जिससे हमें लगता है कि हम जागरूक हैं, जबकि हम स्वयं के प्रति सचेत नहीं होते। यह जागरूकता केवल बाहरी जगत की नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभूति की होनी चाहिए।
दृश्य और द्रष्टा के द्वैत से परे जाकर ही सच्चे अर्थों में जागरण संभव है। जब हम इस द्वैत से मुक्त होकर अद्वैत का अनुभव करते हैं, तब ही वास्तविक जागरूकता का जन्म होता है। बाहरी दृश्यों ने हमें स्वयं से दूर कर दिया है, और हम उसी जगत को सत्य मान बैठे हैं, जो हमारे अंतर्मुखी सत्य का प्रतिबिंब मात्र है। इस माया के प्रभाव से मुक्त होकर अपने अंदर छिपे सत्य को पहचानना ही जीवन का उद्देश्य है।जब हम सत्य को पहचान लेते हैं, उसी क्षण माया के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं।माया अर्थात जो है ही नहीं।
*ॐ आनन्दाय नमः।*
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