निर्विशेष परमात्मा
क्या परमात्मा निर्विशेष हैं?
निर्विशेष का अर्थ है—जिसमें कोई विशेषता, गुण, रूप, आकार या भेदभाव न हो। जब हम परमात्मा को निर्विशेष कहते हैं, तो इसका तात्पर्य यह होता है कि परमात्मा किसी भी सीमित या साकार विशेषता से परे हैं। इसे निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
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1. अद्वैत वेदांत और निर्विशेष ब्रह्म
अद्वैत वेदांत में शंकराचार्य ने कहा है कि परमात्मा (ब्रह्म) "निर्विशेष, निराकार, अचल और शुद्ध चैतन्य मात्र" हैं। इसका अर्थ यह है कि वे किसी भी गुण या विशेषता से परे हैं और केवल एक अखंड, अविभाज्य चेतना के रूप में विद्यमान हैं।
शास्त्र प्रमाण:
> "नेति, नेति" (बृहदारण्यक उपनिषद 2.3.6) – परमात्मा को किसी भी विशेष गुण से परिभाषित नहीं किया जा सकता, इसलिए उपनिषद कहते हैं, "यह नहीं, यह नहीं।"
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2. परमात्मा रूप, रंग और आकार से परे हैं
हम जो भी देख या अनुभव कर सकते हैं, वह सीमित होता है—चाहे वह कोई वस्तु हो, व्यक्ति हो, विचार हो या ऊर्जा हो। परमात्मा किसी भी विशेष रूप में सीमित नहीं होते क्योंकि यदि वे किसी विशेष रूप में होते, तो वे सीमित हो जाते।
शंकराचार्य का विवेचन:
शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिखा—
> "ब्रह्म न तो कोई वस्तु है, न कोई गुण, न ही कोई संकल्प। वह केवल सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना) और आनंद (परमानंद) का निरंतर प्रवाह है।"
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3. गुणातीत और सगुण-निर्गुण की अवधारणा
भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:
> "त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।" (गीता 2.45)
"हे अर्जुन! जो वेदों में वर्णित तीनों गुणों (सत्व, रजस, तमस) से परे है, वही परम वास्तविकता है।"
इसका अर्थ है कि परमात्मा सत्व, रजस और तमस—तीनों गुणों से परे हैं, इसलिए उन्हें किसी विशेषता से बांधा नहीं जा सकता।
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4. अनुभव और निर्विशेष ब्रह्म की प्राप्ति
निर्विशेष ब्रह्म की अनुभूति कोई बौद्धिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अनुभव है। ध्यान और आत्मसाक्षात्कार के द्वारा जब व्यक्ति अपने "मैं" (अहंकार) से ऊपर उठता है, तब उसे अनुभव होता है कि परमात्मा किसी विशेषता से बंधे नहीं हैं, वे केवल शुद्ध चेतना हैं।
योग वशिष्ठ में कहा गया है:
> "जब तक कोई विशेषता रहती है, तब तक बंधन है। जब सब विशेषताएँ मिट जाती हैं, तब केवल ब्रह्म बचता है।"
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5. परमात्मा और शून्यता का भेद
निर्विशेष ब्रह्म को कुछ लोग शून्यता समझने की भूल करते हैं, लेकिन वेदांत कहता है कि परमात्मा शून्यता नहीं हैं, वे पूर्णता हैं। वे किसी भी रूप से बंधे नहीं हैं, लेकिन वे सर्वव्यापी, सत्-चित्-आनंद स्वरूप हैं।
मांडूक्य उपनिषद:
> "अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः" – वह अद्वैत है, वह आत्मा ही जानने योग्य है।
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निष्कर्ष
1. परमात्मा निराकार, निरगुण, और निर्विशेष हैं।
2. वे किसी भी विशेषता या भेदभाव से मुक्त हैं।
3. उनकी अनुभूति प्रतिपल निरन्तर से हो ही रही है।
4. वे शून्य नहीं, बल्कि अखंड चैतन्य और पूर्णता हैं।
5. उन्हें ‘नेति, नेति’ द्वारा समझा जाता है, यानी किसी भी विशेषता में बाँधा नहीं जा सकता।
अतः निर्विशेष परमात्मा का तात्पर्य यह है कि वे किसी विशेष रूप, गुण, आकार, या सीमा में बंधे नहीं हैं, वे केवल शुद्ध अस्तित्व, शुद्ध चेतना और शुद्ध आनंद हैं।
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