आत्मा और सत्य
"दर्पण और प्रकाश"
गाँव के किनारे एक संत एक छोटी सी कुटिया में निवास करते थे । उनका चेहरा शांत था,मन सहज शांत ,आँखों में गहराई और हृदय में प्रकाश। लोग उन्हें ज्ञानी कहते, पर वह स्वयं को बस एक दर्पण मानते थे।
एक दिन एक युवा जिज्ञासु उसके पास आया — हृदय में प्रश्नों की ज्वाला और जीवन के अर्थ की प्यास।
युवा बोला, “बाबा! मैं आत्मज्ञान चाहता हूँ। कृपया मार्गदर्शन दीजिए। मैंने ग्रंथ पढ़े, ध्यान किया, यात्राएँ कीं, फिर भी भीतर कुछ अधूरा है।”
संत मुस्कुराए और बोले, “पुत्र, क्या तुम दर्पण में अपना चेहरा देख सकते हो, यदि वह धूल से ढका हो?”
“नहीं बाबा, साफ़ करना पड़ेगा,” युवक ने उत्तर दिया।
संत बोले, “ठीक वैसे ही आत्मा हर हृदय में प्रकाशित है, कण कण में प्रकाशित है परंतु मन की धूल —कामनाएं ,इच्छाएँ, भय, ईर्ष्या, क्रोध की धूल — उसे ढक देती है। आत्मज्ञान कोई बाहरी उपलब्धि नहीं, बल्कि मन की सफाई है।”
युवक ने पूछा, “तो मुझे क्या करना होगा?”
संत ने धीरे से उत्तर दिया, “प्रतिदिन कुछ समय मौन में बैठो। अपने विचारों को देखो, उन्हें पकड़े बिना बहने दो। प्रेम से स्वयं को स्वीकारो। जब मन शांत होगा, तब अंतर में जो सदा से है — वही प्रकट होगा, जो सदा से उपस्थित है।”
युवक ने सहजता से, धैर्य से अभ्यास किया — ध्यान, मौन, और आत्म-निरीक्षण। धीरे-धीरे उसकी दृष्टि बदलने लगी।उसकी सजगता बढ़ने लगी।उसे हर वस्तु में वही प्रकाश, वही सत्य झलकने लगा — वृक्षों में, लोगों में, और स्वयं में।
एक दिन वह फिर संत के पास आया। इस बार उसके चेहरे पर प्रश्न नहीं, एक शांत मुस्कान थी।
संत ने उसकी आँखों में देखा और बोले, “अब तू जान गया है कि आत्मज्ञान कहीं बाहर नहीं — वही तू स्वयं है। तू न कभी आया, न गया — बस अभी है, जैसा है, पूर्ण है।”
निष्कर्ष:
आत्मज्ञान कोई चमत्कार नहीं, न कोई दूर की बात है। यह सहज, स्वाभाविक अनुभूति है — जैसे कोई दर्पण पर लगी धूल हटाए और उसमें अपनी ही दिव्यता को देख ले। जब मन स्थिर होता है, तो आत्मा स्वयं को प्रकट करती है।
शब्दों से नहीं, मौन से; ज्ञान से नहीं, अनुभव से — यही है आत्मज्ञान की सहज राह।
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सत्य महेश भोपाल
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