तत्वमसि

तत्वमसि
हर मनुष्य जाने अनजाने कुछ खोज रहा है।पर जानता नहीं क्या,क्यों और कैसे खोजना है ।और जो खोज रहा है वह खोया ही नहीं है।
यह कुछ इसी तरह की बात है कि चश्मा लगाया हुआ है और उसे ही ढूंढ रहे हैं।
मनीषी दृष्टा सदियों से बार बार यह सत्य बताते रहे हैं कि तुम्हें कुछ नहीं खोजना है क्योंकि वह खोया ही नहीं है और इसके लिए कुछ नहीं करना है।
  पर क्रियाशील मनुष्य को अक्रिया में होने की स्थिति का परिचय नहीं होता और हो भी नहीं सकता।
    कारण उस "कुछनहीं" या "सबकुछ" का अनुभव चंचल मन को नहीं होता।क्योंकि मन का अस्तित्व ही विरोधाभासों में है।अच्छा - बुरा,काला-सफेद,सुख-दुख की अनुभूति मन का संसार है।
मन द्वारा रचित व अनुभव की गई हर वस्तु, व्यक्ति नश्वर है तो वह अनश्वर को कभी कैसे जान सकता है।
वर्तमान में एक पल के लिये जानें कि रूप, रस,गंध,स्पर्श,शब्द किस सत्ता में अनुभव हो रहे हैं।भावना किस सत्ता से उठती  है और कहाँ विलीन होती हैं।तो तुम सहज ही इस मायावी संसार के सत्य को,मूल को जानकर वही हो सकते हो।तुम जान पाओगे अपने जीवन के सत्य को।यानी असीम प्रेम,आनंद,परम मौन को।और तब ही मिटेगा अन्तर तुममें और तुम्हारे सत्य में।
जानो और मानो तुम भी हो वही,अभी और यहीं।
परमचैतन्य,सदाशिव,सदानंद।
तथास्तु।
धन्यवाद धन्यवाद धन्यवाद।
मास्टर महेश सेठ,भोपाल
29-05-2015

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