आत्मबोध
### आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित आत्मबोध का सार
**आत्मबोध** आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित एक प्रमुख प्रकरण ग्रंथ है, जिसमें 68 श्लोकों के माध्यम से अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों को सरलता से समझाया गया है। यह ग्रंथ उन साधकों के लिए लिखा गया है जो तपस्या से पापों से शुद्ध हो चुके हैं, शांतचित्त हैं, राग-द्वेष से मुक्त हैं और मुक्ति की इच्छा रखते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाना है।
#### मुख्य शिक्षाएँ और सारांश:
1. **ज्ञान ही मुक्ति का साधन है**:
कर्म, उपासना या भक्ति से अज्ञान का नाश नहीं होता। केवल आत्मज्ञान (विवेकपूर्ण ज्ञान) ही अज्ञान को दूर कर मुक्ति प्रदान करता है, जैसे अंधकार को प्रकाश ही नष्ट करता है। अन्य साधन (कर्म आदि) अप्रत्यक्ष रूप से सहायक हैं, लेकिन प्रत्यक्ष मुक्ति ज्ञान से ही होती है।
2. **आत्मा का स्वरूप**:
आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है – सत् (सदा विद्यमान), चित् (चेतना) और आनंद (पूर्ण सुख)। यह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और अविभाज्य है। आत्मा शरीर, इंद्रियाँ, मन या बुद्धि नहीं है। यह साक्षी मात्र है, जो इन सबको प्रकाशित करता है, जैसे सूर्य प्रकाश देता है लेकिन स्वयं अप्रभावित रहता है।
3. **पंचकोश और उपाधियाँ**:
आत्मा पर पाँच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) की उपाधियाँ आरोपित हो जाती हैं, जिससे हम इसे सीमित मान लेते हैं। जैसे क्रिस्टल पास की वस्तु का रंग ग्रहण कर लेता है, वैसे ही आत्मा शरीर आदि से तादात्म्य करके दुख-सुख अनुभव करता प्रतीत होता है। वास्तव में आत्मा इनसे अलग और निर्लेप है।
4. **जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य**:
जगत माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होता है, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम। वास्तविकता केवल ब्रह्म (या आत्मा) ही है। शंकराचार्य का प्रसिद्ध सूत्र: **"ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः"** – ब्रह्म ही सत्य है, जगत असत्य (मिथ्या) है, और जीव ब्रह्म से अभिन्न है।
5. **उपाधियों से भेद और विवेक**:
अज्ञान के कारण आत्मा पर अहंकार, शरीर आदि आरोपित होते हैं। विवेक (निर्णय) से इन भेदों को अलग करके आत्मा का साक्षात्कार होता है। उदाहरण: घड़ा टूटने पर भी आकाश अखंड रहता है, वैसे ही शरीर नष्ट होने पर आत्मा अप्रभावित रहती है।
6. **साधना का मार्ग**:
श्रवण (शास्त्र सुनना), मनन (चिंतन) और निदिध्यासन (ध्यान) से आत्मा में स्थिर होना। निरंतर अभ्यास से "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) की अनुभूति होती है, और सभी भेद मिट जाते हैं।
**निष्कर्ष**: आत्मबोध का सार यह है कि हमारा वास्तविक स्वरूप ब्रह्म है – अखंड, आनंदस्वरूप और मुक्त। अज्ञान ही बंधन का कारण है, और आत्मज्ञान ही मुक्ति। यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत का सरल परिचय है, जो उपनिषदों के गूढ़ तत्त्वों को स्पष्ट करता है।
यह ज्ञान जीवन को परिवर्तित कर देता है, क्योंकि सच्चा सुख केवल आत्मा में ही है, बाहरी जगत में नहीं।
हरि ॐ आनंदाय नमः।
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